जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत / Piaget’s Cognitiv Development Theory


             जीन  पियाजे का संज्ञानात्मक

                 विकास का सिद्धांत 

 

             Piaget’s Cognitive        

          Development Theory

 

             निवासी – स्विट्ज़रलैंड

             सहयोगी – बारबेल इन्हेलडर

               

 

      संज्ञानात्मक शब्द का अंग्रेजी रूपांतरण है कॉगनेटिव है। 

 ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हम वाह्य जगत को जानने समझने की जो कोशिश करते हैं उसे ही संज्ञान कहते हैं।
संज्ञान’ शब्द का अर्थ है ‘जानना’ या ‘समझना’। यह एक ऐसी बौद्धिक प्रक्रिया है जिसमें विचारों के द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता है। संज्ञानात्मक विकास शब्द का प्रयोग मानसिक विकास के व्यापक अर्थो में किया जाता है जिसमें बुद्धि के अतिरिक्त सूचना का प्रत्यक्षीकरण, पहचान और व्याख्या आता है। अतः संज्ञान में मानव की विभिन्न मानसिक गतिविधियों का समन्वय होता है।
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान’ शब्द का प्रयोग Vlric Neisser ने अपनी पुस्तक ‘संज्ञानात्मक मनोविज्ञान’ में सन् 1967 र्इ0 में किया था

पियाजे ने सर्वप्रथम एक पुस्तक "द लैंग्वेज  ऑफ थॉट  ऑफ़ द चाइल्ड" सन 1930 में  लिखी इसके बाद अनेक पुस्तकें लिखी जिसमें मनोवैज्ञानिक  अवधारणाओं के विकास क्रम का अध्ययन किया  तथा मानव विकास की विशेषताओं का भी विशद वर्णन किया । इसी कारण जीन पियाजे की मनोवैज्ञानिक विचारधाराएं विकासात्मक मनोविज्ञान" के नाम से विदित है।

विकास प्रारम्भ होता है गर्भावस्था से जबकि संज्ञानात्मक विकास शैशवावस्था से प्रारम्भ होकर जीवन पर्यंत चलता रहता है
यह व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर आधारित है
इसमें बालक अपनी योग्यता क्षमता और रुचि के अनुसार ज्ञान प्राप्त करता है



संज्ञात्मक विकास क्या है

जीन पियाजे का मानना है कि संज्ञानात्मक विकास अनुकरण की बजाय खोज पर आधारित है। इसमें व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियों के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अपनी समझ का निर्माण करता है। उदाहरण के तौर पर कोई छोटा बच्चा जब जलते हुए दीपक को जिज्ञासा वश छूता है तो उसे जलने के बाद अहसास होता है कि यह तो डरावनी चीज़ है, इससे दूर रहना चाहिए। उसके पास अपने अनुभव को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त शब्द नहीं होते पर वह जान लेता है कि इसको दूर से देखना ही ठीक है। वह बाकी लोगों की तरफ इशारा करता है अपने डर को अभिव्यक्ति देने वाले इशारों में।


संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण स्थान जीन पियाजे का है। उन्होंने अपने तीन बच्चों और एक भतीजे के विकास का अध्ययन किया और बताया कि बच्चों का संज्ञानात्मक विकास बड़ों के संज्ञानात्मक विकास से अलग होता है। बच्चों का संज्ञानात्मक विकास यथार्थ की एक अलग समझ पर आधारित होता है जो कि परिपक्वता और अनुभव के साथ धीरे-धीरे बदलता जाता है। इन सभी बदलावों को आयु के आधार पर अवस्थाओं में बांटा जा सकता है।

    
 संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत के पद

अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में पियाजे दो पदों का उपयोग करते है । संगठन और अनुकूलन हालांकि इन पदों के अलावा भी पियाजे ने कुध अन्य पदों का प्रयोग अपने संज्ञानात्मक विकास मे किया है।
(1) अनुकूलन - पियाजे के अनुसार बच्चों में अपने वातावरण के साथ समायोजन की प्रवृति जन्मजात होती है I बच्चे की इस प्रवृति को अनुकूलन कहा जाता है । पियाजे के अनुसार बालक अपने प्रारंभिक जीवन से ही अनुकूलन करने लगता है । जब को बच्चा वातावरण में किसी उद्दीपक परिस्थितियों के समाने होता है । उस समय उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाएँ अलग – अलग कार्य न करके एक साथ संगठित होकर कार्य करती है , और ज्ञान अर्जित करती है । यही क्रिया हमेशा मानसिक – स्तर पर चलती है। वातावरण के साथ मनुष्य का जो संबंध होता है उस संबंध को संगठन आन्तरिक रूप से प्रभावित करता है जबकि अनुकूलन बाहरी रूप से ।पियाजे ने अनुकूलन की प्रक्रिया को अधिक महत्वपूर्ण मना है ।


पियाजे ने अनुकूलन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को दो उप प्रक्रियाओं में बॉटा है।
(i) आत्मीकरण
(ii)
समंजन
(1) आत्मीकरण- एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बालक किसी समस्या का समाधान करने के लिए पहले सीखी हुई योजनाओं या मानसिक प्रक्रियाओं का सहारा लेता है । यह एक जीव – वैज्ञानिक प्रक्रिया है । आत्मसात्करण को हम इस उदाहरण के माध्यम से भी समझ सकते हैं कि जब हम भोजन करते हैं तो मूल रूप से भोजन हमारे भीतर नहीं रह पाता है बल्कि भोजन से बना हुआ रक्त हमारी मांसपेशियों मे इस प्रकार समा जाता है कि जिससे हमारी मांसपेशियों की संरचना का आकार बदल जाता है । इससे यह बात स्पष्ट होती है कि आत्मसात्करण की प्रक्रिया से संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं ।
पियाजे के शब्दों में ” नए अनुभव का आत्मसात्करण करने के लिए अनुभव के स्वरूप में परिवर्तन लाना पड़ता है । जिससे वह पुराने अनुभव के साथ मिल जुलकर संज्ञान के एक नए ढांचे को पैदा करना पड़ता है । इससे बालक के नए अनुभवों में परिवर्तन होते है ।
(2) संमजन एक ऐसी प्रक्रिया है जो पूर्व में सीखी योजना या मानसिक प्रक्रियाओं से काम न चलने पर समंजन के लिए ही की जाती है । पियाजे कहते हैं कि बालक आत्मसात्करण और सामंजस्य की प्रक्रियाओं के बीच संतुलन कायम करता है । जब बच्चे के सामने कोई नई समस्या होती है , तो उसमें सांज्ञानात्मक असंतुलन उत्पन्न होता है और उस असंतुलन को दूर करने के लिए वह आत्मसात्करण या समंजन या दोनों प्रक्रियाओं को प्रारंभ करता है ।
समंजन को आत्मसात्करण की एक पूरक प्रकिया माना जाता है । बालक अपने वातावरण या परिवेश के साथ समा योजित होने के लिए आत्मीकरण और समंजन का सहारा आवश्यकतानुसार लेते हैं ।
संज्ञानात्मक संरचना  : पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक संरचना से तात्पर्य बालक का मानसिक संगठन से है । अर्थात् बुद्धि में संलिप्त विभिन्न क्रियाएं जैसे – प्रत्यक्षीकरण स्मृति, चिन्तन तथा तर्क इत्यादि ये सभी संगठित होकर कार्य करते हैं । वातावरण के साथ समायोजन , संगठन का ही परिणाम है ।
मानसिक संक्रिया  बालक द्वारा समस्या – समाधान के लिए किए जाने वाले चिन्तन को ही मानसिक संक्रिया कहते हैं ।
स्कीम्स  यह बालक द्वारा समस्या – समाधान के लिए किए गए चिन्तन का अभिव्यक्त रूप होता । अर्थात् मानसिक संक्रियाओं का अभिव्यक्त रूप ही स्कीम्स होता है ।
स्कीमा ( Schema ) : एक ऐसी मानसिक संरचना जिसका सामान्यीकरण किया जा सके, स्कीमा होता है ।

जीन पियाजे ने मानव संज्ञान के विकास को चार अवस्थाओं  के आधार पर समझाया है

1 संवेदी पेशिय अवस्था : (0-2 वर्ष)
इसे इन्द्रिय जनित अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में शिशु अपनी संवेदनाओं व शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से सीखता है।

वह वस्तुओं को देखकर सुनकर स्पर्श करके गन्ध के द्वारा तथा स्वाद के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है
 इस अवस्था में शिशु अपने हाथ-पैरों को चलाना व शब्दों को बोलना सिख जाता हैं।

2 पूर्व संक्रियात्मक अवस्था या (पूर्व वैचारिक अवस्था) -उम्र(2-7वर्ष)

इस अवस्था में शिशु दूसरों के सम्पर्क से, खिलौनों से व अनुकरण के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है।

 वह अक्षर लिखना, गिनती गिनना रंगो को पहचानना वस्तुओं को क्रम में रखना हल्की भारी वस्तु का ज्ञान होना, माता-पिता की आज्ञा मानना पूछने पर नाम बताना और घर के छोटे-छोटे कार्यों में भाग लेना आदि कार्य करता है।

इस अवस्था में बालक तार्किक चिन्तन करने योग्य नहीं होता इसीलिए इसे अतार्किक चिन्तन की अवस्था कहते हैं।

3 मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (7-12)
वैचारिक अवस्था
चिन्तन की  तैयारी का काल
 इस अवस्था में  चिन्तन की शुरूआत हो जाती है। लेकिन उसका चिन्तन केवल मूर्त (प्रत्यक्ष) वस्तुओं तक ही सीमित रहता हैं। इसीलिए इसे मूर्त चिन्तन की अवस्था के नाम से जाना जाता हैं।

 इस अवस्था में बालक दो वस्तुओं के बीच अन्तर करना तुलना करना, समानता व असमानता बताना सही व गलत में भेद करना आदि सीख जाता है।

 इस अवस्था में बालक दिन तारीख महीना, वर्ष आदि बताने में योग्य हो जाता है।
4 औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था :- (12-15 वर्ष) .
 इस अवस्था में किशोर मूर्त के साथ-साथ अमूर्त चिन्तन करने योग्य भी हो जाता हैं इसीलिए इसे तार्किक अवस्था भी कहते हैं।


इस अवस्था में चिन्तन करना, कल्पना करना निरीक्षण करना समस्या-समाधान करना आदि मानसिक योग्यताओं का विकास हो जाता है।



जीन पियाजे का शिक्षा में योगदान :

पियाजे ने बालक के संज्ञानात्मक विकास की जो अवस्थाएं बताई है उन पर किसी मनोवैज्ञानिक ने विचार नहीं किया है। सभी पूर्ववर्ती मनोवैज्ञानिकों ने शारीरिक विकास की दृष्टि से ही शैशवावस्था व बाल्यावस्था का विभाजन किया है। पियाजे का मानसिक विकास के आधार पर शैशवावस्था और बाल्यावस्था का वर्गीकरण, भाषा-विकास शैक्षिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है।


 
मोंटेसरी विद्यालयों के लिए पियाजे के मानसिक विकास के वर्गीकरण, सिद्धांत अत्यधिक महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं क्योंकि पियाजे के मत में अच्छा वातावरण "अधिगम की क्षमता" को बढ़ाता है।

 
पियाजे ने स्कीमा का संप्रत्यय  दिया जिसमें संतुलनीकरण, आत्मीकरण और समंजन जैसे संप्रत्यययों की व्याख्या की है वह संज्ञानात्मक विकास में अति महत्व रखता है।

पियाजे के सिद्धांतों के आधार पर शिक्षण-कौशलों का विकास किया जा सकता है। इस प्रकार पियाजे द्वारा वर्णित संज्ञानात्मक विकास का शिक्षा जगत में अति महत्व है


बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल दिया।

 शिक्षक के पद को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि शिक्षक को बालक की समस्या का निदान करना चाहिए बालकों को उचित वातावरण प्रदान करना चाहिए।




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